


भारत की सनातन परंपराओं में प्रत्येक पर्व केवल उत्सव नहीं, बल्कि जीवन के गूढ़ सिद्धांतों को व्यवहार में उतारने का माध्यम है। दीपावली के अगले दिन मनाया जाने वाला अन्नकूट महोत्सव (गोवर्धन पूजा) इसका उत्कृष्ट उदाहरण है — जहाँ भक्ति, सेवा, आत्मनिर्भरता और आर्थिक सम्पन्नता के सूत्र एक साथ गुंथे हुए हैं।
अन्नकूट का मूल भाव यह है कि “अन्न ही ब्रह्म है।” जब गोवर्धन पूजा के अवसर पर सैकड़ों प्रकार के व्यंजन बनाकर भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित किए जाते हैं, तो यह केवल पूजा नहीं, बल्कि कृषि, श्रम और अन्न उत्पादन के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक बन जाता है। यह पर्व बताता है कि सच्ची सम्पन्नता बाहरी धन में नहीं, बल्कि अन्न और श्रम की आत्मनिर्भरता में निहित है।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इन्द्र पूजा का विरोध और गोवर्धन पर्वत की आराधना यही संदेश देती है कि प्रकृति ही हमारी वास्तविक संरक्षिका है। हमें धन की वर्षा करने वाले बाह्य कारकों पर नहीं, बल्कि अपने परिश्रम, उत्पादन और समरसता पर भरोसा रखना चाहिए। इसी से आत्मनिर्भर समाज और राष्ट्र का निर्माण होता है।
अन्नकूट में समाज के सभी वर्गों का योगदान रहता है — गृहिणी अपने हाथ से भोजन बनाती है, कृषक अपनी फसल अर्पित करता है, और भक्तजन मिलकर प्रसाद का वितरण करते हैं। यह सामूहिकता और सहअस्तित्व का उत्सव है, जहाँ “अन्न” केवल पेट भरने का साधन नहीं बल्कि संपन्न जीवन का आधार बन जाता है।
आज जब विश्व आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तब अन्नकूट का संदेश पहले से अधिक प्रासंगिक है — “अपने श्रम, संसाधनों और भूमि पर विश्वास रखो, यही सच्ची सम्पन्नता का मार्ग है।”
इस प्रकार अन्नकूट केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता, आभार और आर्थिक जागरण का सांस्कृतिक उत्सव है, जो हमें सिखाता है कि “अन्न ही अमृत है, और श्रम ही लक्ष्मी का सच्चा रूप।”